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एक सज्दा ख़ुश-गुलू के आगे सहवन हो गया | शाही शायरी
ek sajda KHush-gulu ke aage sahwan ho gaya

ग़ज़ल

एक सज्दा ख़ुश-गुलू के आगे सहवन हो गया

काविश बद्री

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एक सज्दा ख़ुश-गुलू के आगे सहवन हो गया
उस पे कोई मो'तरिज़ होगा तो क़स्दन हो गया

कुफ़्र का फ़तवा हुआ सादिर तो ख़ुश-क़िस्मत था मैं
तज़्किरा मेरा भी हर मस्जिद में ज़िमनन हो गया

आनन-फ़ानन में किसी ने दस्त-गीरी की मिरी
काम था मुश्किल का अहलन और सहलन हो गया

तौअ'न-ओ-करहन बढ़ाते हैं मुलाक़ातों को हाथ
सब से याराना मिरा मौक़ूफ़ क़तअन हो गया

ख़्वाब ही इस बार देखा था कभी मैं ने जिसे
दू-बदू उस से तसादुम इत्तिफ़ाक़न हो गया

मुस्तहिक़ जन्नत का इक 'काविश' नहीं वो भी तो है
क़त्ल मेरा एक जाहिल से जो शरअ'न हो गया