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एक रहज़न को अमीर-ए-कारवाँ समझा था मैं | शाही शायरी
ek rahzan ko amir-e-karwan samjha tha main

ग़ज़ल

एक रहज़न को अमीर-ए-कारवाँ समझा था मैं

द्वारका दास शोला

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एक रहज़न को अमीर-ए-कारवाँ समझा था मैं
अपनी बद-बख़्ती को मंज़िल का निशाँ समझा था मैं

तेरी मा'सूमी के सदक़े मेरी महरूमी की ख़ैर
ऐ कि तुझ को सूरत-ए-आराम-ए-जाँ समझा था मैं

दुश्मन-ए-दिल दुश्मन-ए-दीं दुश्मन-ए-होश-ओ-हवास
हाए किस ना-मेहरबाँ को मेहरबाँ समझा था मैं

दोस्त का दर आ गया तो ख़ुद-बख़ुद झुकने लगी
जिस जबीं को बे-नियाज़-ए-आस्ताँ समझा था मैं

क़ाफ़िले का क़ाफ़िला ही राह में गुम कर दिया
तुझ को तो ज़ालिम दलील-ए-रह-रवाँ समझा था मैं

मेरे दिल में आ के बैठे और यहीं के हो गए
आप को तो यूसुफ़-ए-बे-कारवाँ समझा था मैं

इक दरोग़-ए-मस्लहत-आमेज़ था तेरा सुलूक
ये हक़ीक़त थी मगर ये भी कहाँ समझा था मैं

ज़िंदगी इनआ'म-ए-क़ुदरत ही सही लेकिन इसे
क्या ग़लत समझा अगर यार-ए-गराँ समझा था मैं

फेर था क़िस्मत का वो चक्कर था मेरे पाँव का
जिस को 'शो'ला' गर्दिश-ए-हफ़्त-आसमाँ समझा था मैं