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एक पैकर है कि इमसाल में आता ही नहीं | शाही शायरी
ek paikar hai ki imsal mein aata hi nahin

ग़ज़ल

एक पैकर है कि इमसाल में आता ही नहीं

ख़ालिद महमूद ज़की

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एक पैकर है कि इमसाल में आता ही नहीं
जैसे आईना ख़द-ओ-ख़ाल में आता ही नहीं

आसमाँ का ये क़फ़स क़ैद करे भी कैसे
दिल वो पंछी कि पर-ओ-बाल में आता ही नहीं

हम जिसे देखते हैं उस के अलावा भी है
इक ज़माना जो मह-ओ-साल में आता ही नहीं

अपने रहने को भी किया शहर मिला है जिस का
हाल ये है कि किसी हाल में आता ही नहीं

मानता कब है किसी सूद-ओ-ज़ियाँ को ये दिल
ऐसा वहशी है किसी चाल में आता ही नहीं