एक नग़्मा इक तारा एक ग़ुंचा एक जाम
ऐ ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-दौराँ तुझे मेरा सलाम
ज़ुल्फ़ आवारा गरेबाँ चाक घबराई नज़र
इन दिनों ये है जहाँ में ज़िंदगानी का निज़ाम
चंद तारे टूट कर दामन में मेरे आ गिरे
मैं ने पूछा था सितारों से तिरे ग़म का मक़ाम
कह रहे हैं चंद बिछड़े रहरवों के नक़्श-ए-पा
हम करेंगे इंक़लाब-ए-जुस्तुजू का एहतिमाम
पड़ गईं पैराहन-ए-सुब्ह-ए-चमन पर सिलवटें
याद आ कर रह गई है बे-ख़ुदी की एक शाम
तेरी इस्मत हो कि हो मेरे हुनर की चाँदनी
वक़्त के बाज़ार में हर चीज़ के लगते हैं दाम
हम बनाएँगे यहाँ 'साग़र' नई तस्वीर-ए-शौक़
हम तख़य्युल के मुजद्दिद हम तसव्वुर के इमाम

ग़ज़ल
एक नग़्मा इक तारा एक ग़ुंचा एक जाम
साग़र सिद्दीक़ी