एक नए साँचे में ढल जाता हूँ मैं
क़तरा क़तरा रोज़ पिघल जाता हूँ मैं
जब से वो इक सूरज मुझ में डूबा है
ख़ुद को भी छू लूँ तो जल जाता हूँ मैं
आईना भी हैरानी में डूबा है
इतना कैसे रोज़ बदल जाता हूँ मैं
मीठी मीठी बातों में मालूम नहीं
जाने कितना ज़हर उगल जाता हूँ मैं
अब ठोकर खाने का मुझ को ख़ौफ़ नहीं
गिरता हूँ तो और सँभल जाता हूँ मैं
अक्सर अब अपना पीछा करते करते
ख़ुद से कितनी दूर निकल जाता हूँ मैं
ग़ज़ल
एक नए साँचे में ढल जाता हूँ मैं
भारत भूषण पन्त