एक मुश्किल सी बहर-तौर बनी होती है
तुझ से बाज़ आएँ तो फिर ख़ुद से ठनी होती है
कुछ तो ले बैठती है अपनी शिकस्ता-पाई
और कुछ राह में छाँव भी घनी होती है
मेरे सीने से ज़रा कान लगा कर देखो
साँस चलती है कि ज़ंजीर-ज़नी होती है
आबला-पाई भी होती है मुक़द्दर अपना
सर पे अफ़्लाक की चादर भी तनी होती है
दूध की नहर निकाली है ग़मों से हम ने
हम बता सकते हैं क्या कोह-कनी होती है
आँख तो खुलती है किरनों की तलब में लेकिन
ज़ेब-ए-मिज़्गाँ किसी नेज़े की अनी होती है
दश्त-ए-ग़ुर्बत ही पे मौक़ूफ़ नहीं है 'ताबिश'
अब तो घर में भी ग़रीब-उल-वतनी होती है
ग़ज़ल
एक मुश्किल सी बहर-तौर बनी होती है
अब्बास ताबिश