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एक मुद्दत से सर-ए-दोश-ए-हवा हूँ मैं भी | शाही शायरी
ek muddat se sar-e-dosh-e-hawa hun main bhi

ग़ज़ल

एक मुद्दत से सर-ए-दोश-ए-हवा हूँ मैं भी

इफ़्फ़त अब्बास

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एक मुद्दत से सर-ए-दोश-ए-हवा हूँ मैं भी
इतना शफ़्फ़ाफ़ कि हम-रंग-ए-फ़ज़ा हूँ मैं भी

तू भी वाक़िफ़ मिरी तासीर के महशर से हे
और मिन्नत-कश-ए-अल्ताफ़-ओ-अता हूँ मैं भी

तू मनादिर के सिंघासन पे ब-सद इज़्ज़-ओ-वक़ार
फूल की थाल में लौ देता दिया हूँ मैं भी

तू भी इज़हार-ए-तअ'ल्लुक़ के सबब ढूँडता है
शिद्दत-ए-शौक़ से जोया-ए-रज़ा हूँ मैं भी

हरम-ए-नाज़ की चिलमन से उलझने वाली
दिल-ए-बेताब-ए-मोहब्बत की दुआ हूँ मैं भी

मुश्तरी मेरा भी आएगा ये मैं जानता हूँ
पहले बाज़ार में आने से बिका हूँ मैं भी

हो जो यक-पहलू-ओ-यक-रंग नहीं है तू 'शहाब'
शो'ला-ओ-शबनम-ओ-सीमाब-ओ-सबा हूँ मैं भी