एक मौहूम सी ख़ुशी की तरह
तुम मिले भी तो अजनबी की तरह
तीरगी के उदास जंगल में
हम भटकते हैं रौशनी की तरह
ग़म-ए-दौराँ सँवार दूँ तुझ को
अपने गीतों की दिलकशी की तरह
याद-ए-जानाँ उतर के आई है
शब के ज़ीने से चाँदनी की तरह
मेहरबाँ हो के साथ चलती है
ज़िंदगी दर्द-ए-ज़िंदगी की तरह
आरज़ू का हसीं सवेरा भी
आज नाराज़ है किसी की तरह
ज़िंदगी का ख़याल भी 'साक़िब'
रूठ जाए न ज़िंदगी की तरह

ग़ज़ल
एक मौहूम सी ख़ुशी की तरह
मीर नक़ी अली ख़ान साक़िब