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एक मरकज़ पे सिमटता जाऊँ | शाही शायरी
ek markaz pe simaTta jaun

ग़ज़ल

एक मरकज़ पे सिमटता जाऊँ

महेंद्र कुमार सानी

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एक मरकज़ पे सिमटता जाऊँ
ये मैं घटता हूँ कि बढ़ता जाऊँ

इक नफ़स भी मैं न जाऊँ बेकार
किसी तख़्लीक़ में बरता जाऊँ

मैं बुलंदी की तरफ़ माइल हूँ
ज़ीना-दर-ज़ीना उतरता जाऊँ

हो रहा हूँ तिरे दुख में तहलील
अपने हर दर्द से कटता जाऊँ

हो रहा हूँ मैं कहीं और तुलू
उफ़ुक़-ए-जिस्म से ढलता जाऊँ