एक मरकज़ पे सिमट आई है सारी दुनिया
हम तमाशा हैं तमाशाई है सारी दुनिया
जश्न होगा किसी आईना-सिफ़त का शायद
संग हाथों में उठा लाई है सारी दुनिया
वो ख़ुदा तो नहीं लेकिन है ख़ुदा का बंदा
जिस की आवाज़ से थर्राई है सारी दुनिया
वो भी दुनिया के लिए छोड़ रहा है मुझ को
मैं ने जिस के लिए ठुकराई है सारी दुनिया
क्यूँ निगाहों में खटकता है निज़ाम-ए-क़ुदरत
क्यूँ बग़ावत पे उतर आई है सारी दुनिया
मौत को दोस्त बनाना ही मुनासिब है 'बशर'
ज़िंदगी की तो तमन्नाई है सारी दुनिया

ग़ज़ल
एक मरकज़ पे सिमट आई है सारी दुनिया
चरण सिंह बशर