EN اردو
एक मंज़र इज़्तिराबी एक मंज़र से ज़ियादा | शाही शायरी
ek manzar iztirabi ek manzar se ziyaada

ग़ज़ल

एक मंज़र इज़्तिराबी एक मंज़र से ज़ियादा

खुर्शीद अकबर

;

एक मंज़र इज़्तिराबी एक मंज़र से ज़ियादा
दिल है साहिल दिल सफ़ीना दिल समुंदर से ज़ियादा

दो जहाँ की ने'मतों को दो बदन से ज़र्ब दे कर
एक लम्हा माँगता हूँ बंदा-परवर से ज़ियादा

ऐ बुत-ए-तौबा-शिकन मैं तुझ से मिल कर सोचता हूँ
फूल में होती नज़ाकत काश पत्थर से ज़ियादा

हसरत-ए-शहर-ए-नसीबाँ क्या तुझे मालूम भी है
दश्त है आबाद यानी इश्क़ के घर से ज़ियादा

चश्म-ओ-लब से पहले इक तिश्ना तअ'ल्लुक़ चाहता हूँ
और फिर आसूदगी तसनीम-ओ-कौसर से ज़ियादा

एक लर्ज़ीदा फ़ज़ा है आसमां की वुसअतों में
इक परिंदा उड़ रहा है अपने शह-पर से ज़ियादा

बस्तियों के लोग सारे बर्फ़ होते जा रहे हैं
बे-रुख़ी अच्छी नहीं 'ख़ुरशीद-अकबर' से ज़ियादा