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एक मैं हूँ एक तू है बा-ख़बर कोई नहीं | शाही शायरी
ek main hun ek tu hai ba-KHabar koi nahin

ग़ज़ल

एक मैं हूँ एक तू है बा-ख़बर कोई नहीं

सहबा वहीद

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एक मैं हूँ एक तू है बा-ख़बर कोई नहीं
हाथ में दे हाथ अपना सर-ब-सर कोई नहीं

शाम मुशफ़िक़ है क़रीब आ दर्द का दरमाँ करें
रात के सहरा में अपना चारा-गर कोई नहीं

रेत के सीने पे रह रह कर चमक उठता है कुछ
अब ब-जुज़ इक नक़्श-ए-पा के राहबर कोई नहीं

मोड़ के बाएँ तरफ़ है संग अंदाज़ों का शहर
दिल सा आईना न ले जा शीशागर कोई नहीं

जाने ये आसेब है किस की सदा का दर-ब-दर
मैं यहाँ हूँ मैं यहाँ हूँ दीदा-वर कोई नहीं

ढूँडते फिरते हो किस को चाँद की मशअ'ल लिए
ज़िंदगी इक फ़ासला है मुंतज़र कोई नहीं