एक मफ़रूज़ा तक़द्दुस ख़ुद पे तारी कर रहा हूँ
कोह-ए-इस्याँ से बहिश्ती नहर जारी कर रहा हूँ
चाहता हूँ अर्श-ओ-कुर्सी तक पहुँचना रफ़्ता रफ़्ता
असफ़लेनी ख़्वाहिशों पर यूँ सवारी कर रहा हूँ
मुंहमिक है पैरहन शग़ली में क्यूँ चश्म-ए-तख़य्युल
मैं अभी उर्यां बदन पर दस्त-कारी कर रहा हूँ
नफ़्स-ए-तस्कीनी पे उस ने सौ तक़ाज़े रख दिए हैं
मैं जो हर लज़्ज़त पे फ़िक्र-ए-हम्द-ए-बारी कर रहा हूँ
सर-निगूँ गुज़रा है शायद अब के तलवारों का मौसम
बे-इरादा शहर की मरदुम-शुमारी कर रहा हूँ
ग़ज़ल
एक मफ़रूज़ा तक़द्दुस ख़ुद पे तारी कर रहा हूँ
खुर्शीद अकबर