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एक लम्हा जो कटे दूसरा फिर भारी है | शाही शायरी
ek lamha jo kaTe dusra phir bhaari hai

ग़ज़ल

एक लम्हा जो कटे दूसरा फिर भारी है

मनमोहन तल्ख़

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एक लम्हा जो कटे दूसरा फिर भारी है
हुई इक उम्र कि अपनी तग-ओ-दौ जारी है

कह के ये मुझ से कि इस शहर में हो तुम कब से
ईंट सर पर किसी ने जैसे कि दे मारी है

और ले आए हो तुम बातें ये दुनिया भर की
अपनी बातों से यहाँ पहले ही बे-ज़ारी है

कोई जिस बात से ख़ुश है तो ख़फ़ा दूसरा है
कुछ भी कहने में किसी से यही दुश्वारी है

साथ ले लें ये ज़रा ख़ुद को तो बस चलते हैं
और रहने के नहीं चलने की तय्यारी है

दाद जब मद्द-ए-मुक़ाबिल के सुख़न की दी आज
दोस्त कहते हैं कि मतलब की तरफ़-दारी है

ख़ुद को या दूसरों को 'तल्ख़' परेशाँ न करो
कुछ नहीं तुम को फ़क़त जीने की बीमारी है