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एक झोंका इस तरह ज़ंजीर-ए-दर खड़का गया | शाही शायरी
ek jhonka is tarah zanjir-e-dar khaDka gaya

ग़ज़ल

एक झोंका इस तरह ज़ंजीर-ए-दर खड़का गया

नज़ीर बनारसी

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एक झोंका इस तरह ज़ंजीर-ए-दर खड़का गया
मैं ये समझा भूलने वाले को मैं याद आ गया

उम्र भर की बात बिगड़ी इक ज़रा सी बात में
एक लम्हा ज़िंदगी भर की कमाई खा गया

ऐ ज़मीं तुझ को मोहब्बत से बसाने के लिए
आसमानों की बुलंदी से मुझे फेंका गया

इंक़िलाब-ए-दहर बर-हक़ लेकिन ऐसा इंक़लाब
वो कहीं पाए गए और मैं कहीं पाया गया

आईना दिखलाने आए थे परेशानी के दिन
था मिरा चेहरा मगर मुझ से न पहचाना गया

आप ने अपनी ज़बाँ से जिस को अपना कह दिया
वो दिवाना हर जगह खोया हुआ पाया गया

ख़ैरियत क्या पूछते हो गेसू-ए-हालात की
वक़्त ही उलझा गया था वक़्त ही सुलझा गया

उस तरफ़ जाते हुए अब दिल दहलता है 'नज़ीर'
ज़िंदगी में जिस तरफ़ से बार-हा आया गया