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एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिखा था सो भी मिट गया | शाही शायरी
ek ja harf-e-wafa likha tha so bhi miT gaya

ग़ज़ल

एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिखा था सो भी मिट गया

मिर्ज़ा ग़ालिब

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एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिक्खा था सो भी मिट गया
ज़ाहिरन काग़ज़ तिरे ख़त का गलत-बर-दार है

जी जले ज़ौक़-ए-फ़ना की ना-तमामी पर न क्यूँ
हम नहीं जलते नफ़स हर चंद आतिश-बार है

आग से पानी में बुझते वक़्त उठती है सदा
हर कोई दरमांदगी में नाले से नाचार है

है वही बाद-मस्ती-ए-हर ज़र्रा का ख़ुद उज़्र-ख़्वाह
जिस के जल्वे से ज़मीं ता आसमाँ सरशार है

मुझ से मत कह तू हमें कहता था अपनी ज़िंदगी
ज़िंदगी से भी मिरा जी इन दिनों बे-ज़ार है

आँख की तस्वीर सर-नामे पे खींची है कि ता
तुझ पे खुल जावे कि इस को हसरत-ए-दीदार है