एक ही शहर में रहते बस्ते काले कोसों दूर रहा
इस ग़म से हम और भी हारे वो भी तो मजबूर रहा
काल था अश्कों का आँखों में लेकिन तेरी याद न पूछ
क्या क्या मोती मैं भी फ़राहम करने पर मजबूर रहा
वो और इतना परेशाँ-ए-ख़ातिर रब्त-ए-ग़ैर की बात नहीं
लेकिन उस के चुप रहने से दिल को वहम ज़रूर रहा
हम ऐसे नाकाम-ए-वफ़ा के ग़ोल में आकर बैठे हो
दुनिया की तक़दीर बदलना जिन का इक दस्तूर रहा
हुस्न की शर्त-ए-वफ़ा जो ठहरी तेशा ओ संग-ए-गिराँ की बात
हम हों या फ़रहाद हो आख़िर आशिक़ तो मज़दूर रहा
वक़्त की बात है याद आ जाना लेकिन उस की बात न पूछ
यूँ तो लाखों बातें निकलीं तेरा ही मज़कूर रहा
ऐ मेरे ख़ुर्शीद-ए-शबी क्या वहम-ए-तुलू-ओ-ग़ुरूब तुझे
एक तिरी गर्दिश ऐसी थी ख़ाना-ए-दिल बे-नूर रहा
इश्क़ भी मोहर-ब-लब गुज़रा है दुनिया की क्या जुरअत थी
उस की नीची नज़रों में भी ऐसा सख़्त ग़ुरूर रहा
हम से उस का रब्त-ए-जुनूँ था एक हँसी की बात सी थी
हम को आख़िर क्यूँ ये ख़ब्त-ए-सई-ए-ना-मशकूर रहा
सुब्ह से चलते चलते आख़िर शाम हुई आवारा-ए-दिल
अब मैं किस मंज़िल में पहुँचा अब घर कितनी दूर रहा
ग़ज़ल
एक ही शहर में रहते बस्ते काले कोसों दूर रहा
अज़ीज़ हामिद मदनी