एक ही घर में रख दिए किस ने जुदा जुदा चराग़
तेरे लिए जला चराग़ मेरे लिए बुझा चराग़
इश्क़-ओ-तलब की राह में बाद-ए-हवस भी तेज़ थी
मैं ने जलाया रात-भर कर के ख़ुदा ख़ुदा चराग़
सुब्ह हुई तो आफ़्ताब सारी बिसात उलट गया
रात उसी मक़ाम पर रौनक़-ए-बज़्म था चराग़
वक़्त-ए-सहर जो पूछ ले कोई तो क्या बताऊँगा
ताक़-ए-जुनूँ पे रात-भर किस के लिए जला चराग़
कौन था मेरे रू-ब-रू आलम-ए-वज्द-ओ-हाल में
किस की निगाह-ए-लुत्फ़ से बन गया आइना चराग़
वादी-ए-जाँ में दफ़अ'तन कैसी ये रौशनी हुई
किस की नज़र ने कर दिए मंज़र-ए-शब में वा चराग़
कोई ख़बर न ला सकी जिस की हवा-ए-तुंद भी
रखते हैं इस मक़ाम का सारा अता-पता चराग़
तख़्ती-ए-शब पे लिख दिया वक़्त ने ये भी वाक़िआ'
ज़र्द हवा के सामने सीना-सिपर रहा चराग़
मुझ को 'ज़िया' वो चाहिए घर जो मिरा उजाल दे
मेरा न मसअला क़मर मेरा न मुद्दआ' चराग़
ग़ज़ल
एक ही घर में रख दिए किस ने जुदा जुदा चराग़
ज़िया फ़ारूक़ी