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एक है फिर भी है ख़ुदा सब का | शाही शायरी
ek hai phir bhi hai KHuda sab ka

ग़ज़ल

एक है फिर भी है ख़ुदा सब का

नसीम नूर महली

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एक है फिर भी है ख़ुदा सब का
इस का उस का मिरा तिरा सब का

हुस्न-ए-मस्तूर को अयाँ कर दे
एक हो जाए मुद्दआ' सब का

जुर्म-ए-दिल की सज़ा मिली मुझ को
मैं ने पाया लिया दिया सब का

नज़्अ' में दे गए जवाब हवास
ए'तिबार आज उठ गया सब का

एक बेगाना-ख़ू को दिल दे कर
मैं गुनाहगार हो गया सब का

मैं किसी का नहीं सिवा जिस के
हाए वो है मिरे सिवा सब का

ऐसी क्या हो गई ख़ता मुझ से
मुझ पे है जौर-ए-ना-रवा सब का

सब को छोड़ा है मैं ने जिस के लिए
वो सितमगर है आश्ना सब का

एक मंज़िल है ऐ 'नसीम' मगर
जादा-ए-शौक़ है जुदा सब का