एक एक क़तरा उस का शो'ला-फ़िशाँ सा है
मौज-ए-सबा पे रेग-ए-रवाँ का गुमाँ सा है
शायद यही है हासिल-ए-उम्र-ए-गुरेज़-पा
फैला हुआ दिमाग़ में हर-सू धुआँ सा है
फाँकी है जब से मैं ने तिरे रूप की धनक
एहसास रंग-ओ-नूर का सैल-ए-रवाँ सा है
नन्हा सा तार उफ़ुक़ पे जो अब तक है ज़ौ-फ़िशाँ
तारीकी-ए-हयात पे बार-ए-गराँ सा है
शब-भर जहाँ पिघलती रही चाँद सी 'ज़मीर'
उस शाख़ पे ब-शक्ल-ए-दिल अब तक निशाँ सा है
ग़ज़ल
एक एक क़तरा उस का शो'ला-फ़िशाँ सा है
तख़्त सिंह