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एक दो अश्क बहाती है चली जाती है | शाही शायरी
ek do ashk bahati hai chali jati hai

ग़ज़ल

एक दो अश्क बहाती है चली जाती है

उरूज ज़ेहरा ज़ैदी

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एक दो अश्क बहाती है चली जाती है
अब तिरी याद भी आती है चली जाती है

वो मिरी दोस्त जिसे बा'द मिरे चाहा था
मुझ से नज़रों को चुराती है चली जाती है

कभी दहशत ने बिगाड़े थे पर अब तन्हाई
ख़ुद मिरे बाल बनाती है चली जाती है

सब्त कर के मिरे माथे पे मिरी हू की मोहर
चाँदनी दर्द बढ़ाती है चली जाती है

ये मोहब्बत भी अजब चीज़ है 'ज़ेहरा-ज़ैदी'
चंद लम्हों को सजाती है चली जाती है