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एक दिन वस्ल से अपने मुझे तुम शाद करो | शाही शायरी
ek din wasl se apne mujhe tum shad karo

ग़ज़ल

एक दिन वस्ल से अपने मुझे तुम शाद करो

मीर मोहम्मदी बेदार

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एक दिन वस्ल से अपने मुझे तुम शाद करो
फिर मिरी जान जो कुछ चाहो सो बे-दाद करो

गर किसी ग़ैर को फ़रमाओगे तब जानोगे
वे हमीं हैं कि बजा लावें जो इरशाद करो

अब तो वीराँ किए जाते हो तरब-ख़ाना-ए-दिल
आह क्या जाने कब आ फिर इसे आबाद करो

याद में उस क़द ओ रुख़्सार के ऐ ग़म-ज़दगाँ
जा के टुक बाग़ में सैर-ए-गुल-ओ-शमशाद करो

ले के दिल चाहो कि फिर देवे वो दिलबर मालूम
कैसे ही नाला करो कैसी ही फ़रियाद करो

सुर्मा-ए-दीदा-ए-उश्शाक़ है ये ऐ ख़ूबाँ
अपने कूचे से मिरी ख़ाक न बर्बाद करो

देख कर ताइर-ए-दिल आप को भूला पर्वाज़
ख़्वाह पाबंद करो ख़्वाह उसे आज़ाद करो

आप की चाह से चाहें हैं मुझे सब वर्ना
कौन फिर याद करे तुम न अगर याद करो

शम्-ए-अफ़रोख़्ता जब बज़्म में देखो यारो
हाल-ए-'बेदार'-ए-जिगर-सोख़्ता वाँ याद करो