एक दीवार सी कोहरे की खड़ी है हर सू
पर समेटे हुए बैठी है चमन में ख़ुश्बू
ये अँधेरे भी हमारे लिए आईना हैं
रू-ब-रू करते हैं किरदार के कितने पहलू
इन सुलगते हुए लम्हों से ये मिलता है सुराग़
दम-ब-दम टूट रहा है शब-ए-ग़म का जादू
दाम-बरदार कोई दश्त-ए-वफ़ा से गुज़रा
सूरत-ए-ख़्वाब हुआ हुस्न-ए-ख़िराम-ए-आहू
फिर हुआ हब्स का एहसास-ए-गिराँ-बार 'सुहैल'
फिर मिरा दिल है तलब-गार-ए-हवा-ए-गेसू
ग़ज़ल
एक दीवार सी कोहरे की खड़ी है हर सू
अदीब सुहैल