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एक भी चैन का बिस्तर नहीं होने देता | शाही शायरी
ek bhi chain ka bistar nahin hone deta

ग़ज़ल

एक भी चैन का बिस्तर नहीं होने देता

अब्दुस्समद ’तपिश’

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एक भी चैन का बिस्तर नहीं होने देता
मेरे घर को वो मिरा घर नहीं होने देता

नित-नया एक शगूफ़ा वो दिखाता है मुझे
ज़ुल्म की हद वो मुक़र्रर नहीं होने देता

सब को दिखलाता है वो छोटा बना कर मुझ को
मुझ को वो मेरे बराबर नहीं होने देता

कैसी साज़िश है ये उस की ज़रा मैं भी देखूँ
क्यूँ मुझे वो सर-ए-मंज़र नहीं होने देता

ख़ौफ़ कैसा है ये शाहीं के क़बीले में 'तपिश'
क्यूँ मम्लूँ में कोई पर नहीं होने देता