EN اردو
एक बे-रंग से ग़ुबार में हूँ | शाही शायरी
ek be-rang se ghubar mein hun

ग़ज़ल

एक बे-रंग से ग़ुबार में हूँ

रिफ़अत सरोश

;

एक बे-रंग से ग़ुबार में हूँ
तेरी आवाज़ के हिसार में हूँ

बे-ख़िज़ाँ है तसव्वुर-ए-हस्ती
मैं अभी आलम-ए-बहार में हूँ

मेरा हर फ़े'ल मुझ से पोशीदा
जाने मैं किस के इख़्तियार में हूँ

अभी तोड़ो न ये तिलिस्म-ए-वफ़ा
मैं अभी प्यार के ख़ुमार में हूँ

ज़िंदगी तुझ से कुछ नहीं शिकवा
अपने क़ातिल के इंतिज़ार में हूँ