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एक बे-नाम सी दीवार है बाहर मेरे | शाही शायरी
ek be-nam si diwar hai bahar mere

ग़ज़ल

एक बे-नाम सी दीवार है बाहर मेरे

महशर बदायुनी

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एक बे-नाम सी दीवार है बाहर मेरे
कौन जाने जो नया शहर है अंदर मेरे

फ़न के पैमाने सुबुक हर्फ़ के कूज़े नाज़ुक
कैसे समझाऊँ कि कुछ दुख हैं समुंदर मेरे

कोई मौसम हो मिरी छप मिरा रंग अपना है
मेरी ये वज़्अ कि बे-वज़्अ हैं मंज़र मेरे

मेरे ही रुख़ का अरक़ जौहर-ए-गुल-हा-ए-हुनर
ज़र-गरी काम मिरा ज़ख़्म मुक़द्दर मेरे

कैसे मैं पाँव की गर्दिश को ग़लत ठहराऊँ
कि है गर्दिश ही का एहसान लहू पर मेरे

अब के भी चश्म-ए-नुमू जागी तो क्या फ़र्क़ पड़ा
वही सूरत कि समर औरों के पत्थर मेरे

तजरबा कर ले मिरे शहर की सरहद पे ग़नीम
लौह-ए-मैदान मिरा हर्फ़ हैं लश्कर मेरे

आने वालों से कहो यूँ न करें शोर बुलंद
कई घर और भी हैं घर के बराबर मेरे

बोल हैं रस न सही लम्हे में नरमी न सही
कुछ तो है बात जो शोहरे हैं ये 'महशर' मेरे