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एक बर्छी से मार जाते हो | शाही शायरी
ek barchhi se mar jate ho

ग़ज़ल

एक बर्छी से मार जाते हो

मिर्ज़ा अज़फ़री

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एक बर्छी से मार जाते हो
दर पर आ जब पुकार जाते हो

हम से बदते हो शर्त फिर देखो
बार बार हार हार जाते हो

उसी रस्ते से देखता हूँ मैं
जब न तब हो दो-चार जाते हो

भला जाते तो हो खड़े ही खड़े
हम से हो हम-कनार जाते हो

यूँ चढ़ा जूता कस कमर हो चले
जब से गंगा के पार जाते हो

याद में किस की ग़ुन-ग़ुना-उन्ना
यूँ बजाते सितार जाते हो

'अज़फ़री' किस के शौक़ में दौड़े
नंगे पा मुँह-नहार जाते हो