एक ऐसे मकाँ में ठहरे हैं
जिस के बाहर अना के पहरे हैं
शाम पंछी कहाँ गुज़ारेंगे
शाख़-ए-गुल पर जले बसेरे हैं
हम तो मलबा हैं ना-शनासी का
टूटे-फूटे से चंद चेहरे हैं
आज बाँटी है धूप सूरज ने
अपने दामन में क्यूँ अँधेरे हैं
जाल टूटे मिले हैं साहिल पर
कौन जाने कहाँ मछेरे हैं
ग़ज़ल
एक ऐसे मकाँ में ठहरे हैं
रफ़अत शमीम