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एक आलम ने जुब्बा-साई की | शाही शायरी
ek aalam ne jubba-sai ki

ग़ज़ल

एक आलम ने जुब्बा-साई की

ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

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एक आलम ने जुब्बा-साई की
ऐ बुतो तुम ने भी ख़ुदाई की

आशिक़ों के लहू की प्यासी हैं
मछलियाँ उस कफ़-ए-हिनाई की

ज़ुल्फ़-ए-पुर-पेच से जो दिल उलझा
बीच में रख़ पड़ा सफ़ाई की

मुर्ग़-ए-बे-बाल-ओ-पर हूँ ऐ सय्याद
आरज़ू है किसी रिहाई की

ऐ जुनूँ दश्त को चलेंगे हम
है क़सम इस बरहना-पाई की

सर जुदा हम ने अपना कर डाला
आई जब गुफ़्तुगू जुदाई की

फिर गया यार घर के पास आ कर
बख़्त-ए-बरगश्ता ने बुराई की

सैकड़ों जामे तुझ पे फटते हैं
धूम है तेरी मीरज़ाई की

तुझ से तो हम को ऐ ख़म-ए-अबरू
थी न उम्मीद कज-अदाई की

कोई क़ातिल की राह भूला था
ऐ अजल तू ने रहनुमाई की

दिल कहीं और हम ने अटकाया
बे-वफ़ाओं से बेवफ़ाई की

न गई ज़ाहिदों के पास कभी
दुख़्तर-ए-रज़ ने पारसाई की

शहर में जाएगी मिरी पा-पोश
क़द्र वाँ क्या बरहना-पाई की

साफ़ है आइना तन-ए-पुर-नूर
है दलील उस पे ख़ुद-नुमाई की

कासा-ए-माह क्यूँ न हो पुर-नूर
बरसों उस कूचे की गदाई की

काबा-ए-दिल में भी मक़ाम किया
ऐ बुतो तुम ने क्या रसाई की

ख़त के आने पे भी मुकद्दर है
सूरत अब कौन सी सफ़ाई की

बाल-ओ-पर भी गए बहार के साथ
अब तो सूरत नहीं रिहाई की

किस के कूचे की राह भूला हूँ
ख़िज़्र ने भी न रहनुमाई की

शाह कहलाए हर तरह से 'वज़ीर'
बादशाही न की गदाई की