एक-आध हरीफ़-ए-ग़म-ए-दुनिया भी नहीं था
अरबाब-ए-वफ़ा में कोई इतना भी नहीं था
लब जलते हैं मय-ख़्वारों के सीने नहीं जलते
इस दर्जा ख़ुनुक शोला-ए-मीना भी नहीं था
इक उस का तग़ाफ़ुल है वो याद आ ही गया है
इक वादा-ए-फ़र्दा है वो भूला भी नहीं था
कह सकते तो अहवाल-ए-जहाँ तुम से ही कहते
तुम से तो किसी बात का पर्दा भी नहीं था
अब हुस्न पे ख़ुद उस का तसव्वुर भी गिराँ है
पहले तो गिराँ ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा भी नहीं था
पहले मिरी वहशत के ये अंदाज़ भी कम थे
पहले मुझे अंदाज़ा-ए-सहरा भी नहीं था
अब ये है कि थमता हुआ दरिया है तिरी याद
बे-फ़ैज़ ये दरिया कभी ऐसा भी नहीं था
अच्छा तो मुरव्वत ही तिरा बोसा-ए-लब है
अच्छा ये कोई दिल का तक़ाज़ा भी नहीं था
मजनूँ के सिवा किस से उठी मिन्नत-ए-दीदार
आख़िर रुख़-ए-लैला था तमाशा भी नहीं था
ग़ज़ल
एक-आध हरीफ़-ए-ग़म-ए-दुनिया भी नहीं था
अज़ीज़ हामिद मदनी