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एक-आध हरीफ़-ए-ग़म-ए-दुनिया भी नहीं था | शाही शायरी
ek-adh harif-e-gham-e-duniya bhi nahin tha

ग़ज़ल

एक-आध हरीफ़-ए-ग़म-ए-दुनिया भी नहीं था

अज़ीज़ हामिद मदनी

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एक-आध हरीफ़-ए-ग़म-ए-दुनिया भी नहीं था
अरबाब-ए-वफ़ा में कोई इतना भी नहीं था

लब जलते हैं मय-ख़्वारों के सीने नहीं जलते
इस दर्जा ख़ुनुक शोला-ए-मीना भी नहीं था

इक उस का तग़ाफ़ुल है वो याद आ ही गया है
इक वादा-ए-फ़र्दा है वो भूला भी नहीं था

कह सकते तो अहवाल-ए-जहाँ तुम से ही कहते
तुम से तो किसी बात का पर्दा भी नहीं था

अब हुस्न पे ख़ुद उस का तसव्वुर भी गिराँ है
पहले तो गिराँ ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा भी नहीं था

पहले मिरी वहशत के ये अंदाज़ भी कम थे
पहले मुझे अंदाज़ा-ए-सहरा भी नहीं था

अब ये है कि थमता हुआ दरिया है तिरी याद
बे-फ़ैज़ ये दरिया कभी ऐसा भी नहीं था

अच्छा तो मुरव्वत ही तिरा बोसा-ए-लब है
अच्छा ये कोई दिल का तक़ाज़ा भी नहीं था

मजनूँ के सिवा किस से उठी मिन्नत-ए-दीदार
आख़िर रुख़-ए-लैला था तमाशा भी नहीं था