एहसासात की बस्ती में जब हर जानिब इक सन्नाटा था
मैं आवाज़ों के जंगल में तब जाने क्या ढूँड रहा था
जिन राहों से अपने दिल का हर क़िस्सा मंसूब रहा है
अब तो ये भी याद नहीं है उन राहों का क़िस्सा क्या था
आज उसी के अफ़्सानों का महफ़िल महफ़िल चर्चा होगा
कल चौराहे पर तन्हा जो शख़्स बहुत ख़ामोश खड़ा था
यूँ जीवन रस कब देता है फिर से अपने ज़ख़्म कुरेदो
तुम ने आख़िर क्या सोचा था दर्द से क्यूँ सन्यास लिया था
ऐसी कोई बात नहीं थी उन राहों से लौट भी आते
लेकिन उन राहों पे किसी ने कुछ दिन अपना साथ दिया था
इस नगरी में लग-भग सब ने एक तरह से चोटें खाईं
लेकिन ज़ख़्मों को सहलाने का सब का अंदाज़ा जुदा था
तुम उन बेगानी राहों में आख़िर किस को ढूँड रहे हो
वो तो कब का लौट चुका है कल जो तुम्हारे साथ चला था
ग़ज़ल
एहसासात की बस्ती में जब हर जानिब इक सन्नाटा था
बलबीर राठी