दूर उफ़ुक़ के पार से आवाज़ के पर्वरदिगार
सदियों सोई ख़ामुशी को सामने आ कर पुकार
जाने किन हाथों ने खेला रात साहिल पर शिकार
शेर की आवाज़ को तरसा किए सूने कछार
ख़्वाब के सूखे हुए ख़ाकों में लज़्ज़त का ग़ुबार
नींद के दीमक-ज़दा गत्ते के पीछे इंतिज़ार
तीरगी कैसे मिटेगी तेरी नुसरत के बग़ैर
आसमाँ की सीढ़ियों से नुक़रई फ़ौजें उतार
आख़िर-ए-शब सब सितारे सो रहे हैं बे-ख़बर
कोई सूरज को ख़बर कर दो कि अब शब-ख़ून मार
फैलता जाता है किरनों का सुनहरी जाल फिर
जगमगा उट्ठी हैं शमशीरें क़तार-अंदर-क़तार
जाने किस को ढूँडने दाख़िल हुआ है जिस्म में
हड्डियों में रास्ता करता हुआ पीला बुख़ार
जिस्म की मिट्टी न ले जाए बहा कर साथ में
दिल की गहराई में गिरता ख़्वाहिशों का आबशार
ग़ज़ल
दूर उफ़ुक़ के पार से आवाज़ के पर्वरदिगार
आदिल मंसूरी