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दूर था साहिल बहुत दरिया भी तुग़्यानी में था | शाही शायरी
dur tha sahil bahut dariya bhi tughyani mein tha

ग़ज़ल

दूर था साहिल बहुत दरिया भी तुग़्यानी में था

नो बहार साबिर

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दूर था साहिल बहुत दरिया भी तुग़्यानी में था
इक शिकस्ता-नाव सा मैं तेज़-रौ पानी में था

मुझ से मिलने कोई आता भी तो मिलता किस तरह
मैं तो घर में बंद ख़ुद अपनी निगहबानी में था

आदमियत के एवज़ उस ने ख़रीदा है लिबास
आदमी था आदमी जब अहद-ए-उर्यानी में था

है क्लब के रंग-ओ-रामिश में भी मेरे साथ साथ
एक सन्नाटा जो दिल की ख़ाना-वीरानी में था

था वो मेरे ख़ैर-मक़्दम को ब-ज़ाहिर पेश पेश
अक्स-ए-दीगर लेकिन उस की ख़ंदा-पेशानी में था

मक़तल-ए-शाम-ओ-सहर में क्या पनपती ज़िंदगी
शबनमिस्ताँ होंकते शो'लों की निगरानी में था

मौसम-ए-गुल भी जुनूँ-पर्वर था लेकिन बेशतर
मस्लहत का हाथ मेरी चाक-दामानी में था

'साबिर' उस मंज़र की मूवी ले रहा था एक शख़्स
शाख़ पर इक आशियाँ शो'लों की ताबानी में था