EN اردو
दूर तक परछाइयाँ सी हैं रह-ए-अफ़्कार पर | शाही शायरी
dur tak parchhaiyan si hain rah-e-afkar par

ग़ज़ल

दूर तक परछाइयाँ सी हैं रह-ए-अफ़्कार पर

तख़्त सिंह

;

दूर तक परछाइयाँ सी हैं रह-ए-अफ़्कार पर
रेंगती फिरती है चुप दिल के दर-ओ-दीवार पर

तू कि है बैठा ख़स-ए-औहाम के अम्बार पर
इस तरह मत हँस मिरे शो'ला-ब-कफ़ अशआ'र पर

ऐ निज़ाम-ए-वहशत-अफ़ज़ा तेरे सन्नाटों की ख़ैर
इक किरन हँसने लगी है रात की तलवार पर

किरचनें दिल की घनी पलकों पे हैं बिखरी हुई
आइना टूटा पड़ा है साया-ए-असरार पर

शे'र कहने की ग़रज़ से मैं ने अक्सर रात-भर
फूल से एहसास को रक्खा है नोक-ए-ख़ार पर

क्या यही मंज़िल थी दिल की क्या उसी के वास्ते
गामज़न बरसों रहा ग़म की रह-ए-दुश्वार पर

ख़ूँ की बू आती है पैहम सूरत-ए-हालात से
आँख रोती है लहू हर सुर्ख़ी-ए-अख़बार पर

किस हिमाक़त के एवज़ किस जुर्म की पादाश में
वक़्त ने खींचा है मुझ को ज़िंदगी की दार पर

एक मुद्दत से दिल-ओ-जाँ ने लगा रक्खे हैं कान
अन-सुनी सरगोशियों की रस-भरी झंकार पर