दूर तक दश्त में उजाला है
जाने किस क़हर का हवाला है
फिर उगलने लगी है आग ज़मीं
फिर कोई क़त्ल होने वाला है
शहर-ए-ख़ुश-बख़्त का मकीं हूँ मगर
गिर्द मेरे ग़मों का हाला है
दिल ने ग़म का अलाव लफ़्ज़ों में
किस महारत से आज ढाला है
जुर्म सरज़द हुआ था आदम से
मुझ को जन्नत से क्यूँ निकाला है
तेरी इक आरज़ू ने लोगों को
किस क़दर उलझनों में डाला है
इक सज़ा-याफ़्ता-ए-इश्क़ ने आज
मंसब-ए-इश्क़ फिर सँभाला है
फिर 'ख़याल'-ए-सितम-ज़दा में कोई
ख़ुश्बू-अंगेज़ मिस्ल-ए-लाला है

ग़ज़ल
दूर तक दश्त में उजाला है
रफ़ीक़ ख़याल