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दूर तक बस इक धुँदलका गर्द-ए-तन्हाई का था | शाही शायरी
dur tak bas ek dhundalka gard-e-tanhai ka tha

ग़ज़ल

दूर तक बस इक धुँदलका गर्द-ए-तन्हाई का था

अकबर हैदराबादी

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दूर तक बस इक धुँदलका गर्द-ए-तन्हाई का था
रास्तों को रंज मेरी आबला-पाई का था

फ़स्ल-ए-गुल रुख़्सत हुई तो वहशतें भी मिट गईं
हट गया साया जो इक आसेब-ए-सहराई का था

तोड़ ही डाला समुंदर ने तिलिस्म-ए-ख़ुद-सरी
ज़ोम क्या क्या साहिलों को अपनी पहनाई का था

और मुबहम हो गया पैहम मुलाक़ातों के साथ
वो जो इक मौहूम सा रिश्ता शनासाई का था

ख़ाक बन कर पत्तियाँ मौज-ए-हवा से जा मिलीं
देर से 'अकबर' गुलों पर क़र्ज़ पुरवाई का था