दूर से देख रहे थे मिरे अहबाब मुझे
अपने हमराह बहा ले गया सैलाब मुझे
वो तिरे क़ुर्ब की ख़ुश्बू को अयाँ हो न निहाँ
वो हक़ीक़त भी नज़र आती है इक ख़्वाब मुझे
मैं कि साहिल का तमन्नाई था लेकिन अब तो
अपने आग़ोश में लेता नहीं गिर्दाब मुझे
मैं तो सदियों का निंदासा हूँ मगर ये तो बताओ
क्यूँ ये माहौल नज़र आता है बे-ख़्वाब मुझे
इस्तिआ'रा हूँ नए अहद में गुम-शुदगी का
भूलते जाते हैं माज़ी के हसीं ख़्वाब मुझे
सर-ए-हस्ती तो उसी चश्म-ए-गुरेज़ाँ से मिला
क्या मिला 'रश्क' सर-ए-मिंबर-ओ-मेहराब मुझे
ग़ज़ल
दूर से देख रहे थे मिरे अहबाब मुझे
सुलतान रशक