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दूद-ए-दिल से है ये तारीकी मिरे ग़म-ख़ाना में | शाही शायरी
dud-e-dil se hai ye tariki mere gham-KHana mein

ग़ज़ल

दूद-ए-दिल से है ये तारीकी मिरे ग़म-ख़ाना में

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

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दूद-ए-दिल से है ये तारीकी मिरे ग़म-ख़ाना में
शम्अ' है इक सोज़न-ए-गुम-गश्ता इस काशाना में

मैं हूँ वो ख़िश्त-ए-कुहन मुद्दत से इस वीराने में
बरसों मस्जिद में रहा बरसों रहा मय-ख़ाना में

मैं वो कैफ़ी हूँ कि पानी हो तो बन जाए शराब
जोश-ए-कैफ़िय्यत से मेरी ख़ाक के पैमाना में

बर्क़-ए-ख़िर्मन-सोज़ दानाई है ना-फ़हमी तिरी
वर्ना क्या क्या लहलहाते खेत हैं हर दाना में

किस नज़ाकत से है देखो इत्तिहाद-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
ज़ुल्फ़ वाँ शाने ने खींची दर्द है याँ शाना में

वहशत ओ ना-आश्नाई मस्ती ओ बेगानगी
या तिरी आँखों में देखी या तिरे दीवाना में

इश्क़ को नश्व-ओ-नुमा मंज़ूर है कब वर्ना सब्ज़
तुख़्म-ए-अश्क-ए-शम्अ हो ख़ाकिस्तर-ए-परवाना में

होश का दावा है बेहोशों को ज़ेर-ए-आसमाँ
ख़ुम-नशीं मिस्ल-ए-फ़लातूँ सब हैं इस ख़ुम-ख़ाना में

पत्थरों में ठोकरें खाता है नाहक़ सैल-ए-आब
पूछो क्या ले जाएगा आ कर मिरे ग़म-ख़ाना में

एक पत्थर पूजने को शैख़-जी का'बे गए
'ज़ौक़' हर बुत क़ाबिल-ए-बोसा है इस बुत-ख़ाना में