दुश्वार है अब रास्ता आसान से आगे
रख उम्र-ए-कुहन पिछ्ला क़दम ध्यान से आगे
अटका हुआ सूरज है इसी एक सबक़ पर
बढ़ता नहीं दिन रात की गर्दान से आगे
क़िस्मत की ख़राबी है कि जाता हूँ ग़लत सम्त
पड़ता है बयाबान बयाबान से आगे
पहुँचा तो नहीं मैं दर-ए-वसलत पे मगर हाँ
सुनता हूँ कहीं है शब-ए-हिज्रान से आगे
न तख़्त न आबाद कोई शहर सबा का
इक गिर्या है दीवार-ए-सुलैमान से आगे
ख़म्याज़ा है इस आदत-ए-इसराफ़ का और बस
जो बे-सर-ओ-सामानी है सामान से आगे
कल शोर बपा दिल में था पहचान की ख़ातिर
अब सकता है आज़ार का पहचान से आगे
निकली न किसी एक की ताबीर मुआफ़िक़
सौ ख़्वाब थे हर ख़्वाब-ए-परेशान से आगे
ग़ज़ल
दुश्वार है अब रास्ता आसान से आगे
एजाज़ गुल