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दुश्मनों को मिरे हमराज़ करोगे शायद | शाही शायरी
dushmanon ko mere hamraaz karoge shayad

ग़ज़ल

दुश्मनों को मिरे हमराज़ करोगे शायद

अफ़रोज़ आलम

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दुश्मनों को मिरे हमराज़ करोगे शायद
वक़्त-ए-तन्हाई में आवाज़ करोगे शायद

तुम बहुत तेज़ हो शह-ज़ोर हो उस्ताद भी हो
तुम बिना पर के भी पर्वाज़ करोगे शायद

ये खुला जिस्म खुले बाल ये हल्के मल्बूस
तुम नई सुब्ह का आग़ाज़ करोगे शायद

तल्ख़ अंदाज़ से बदलोगे ज़माने का मिज़ाज
अपने अतराफ़ को ना-साज़ करोगे शायद

तुम तो ख़ामोश हो लो मैं ही ज़रा बोलता हूँ
बात से बात का आग़ाज़ करोगे शायद