दुश्मनों को दोस्त भाई को सितमगर कह दिया
लोग क्यूँ बरहम हैं क्या शीशे को पत्थर कह दिया
इस लिए मुझ को अमीर-ए-शहर ने दी है सज़ा
मैं ने ख़ुद को ख़ादिम-ए-सिब्त-ए-पयम्बर कह दिया
चढ़ते सूरज की परस्तिश में सभी मसरूफ़ थे
मुझ से जब पूछा गया अल्लाहु-अकबर कह दिया
कितने सादा-लौह हैं ये सब सफ़ीरान-ए-जुनूँ
राहज़न भी मिल गया तो उस को रहबर कह दिया
हो गया दुश्मन भी मेरे हौसले का मो'तरिफ़
मुझ को दरिया-ए-हवादिस का शनावर कह दिया
शेर कहने में मुझे 'आजिज़' मज़ा आने लगा
उस ने जब बे-साख़्ता मुझ को सुख़न-वर कह दिया

ग़ज़ल
दुश्मनों को दोस्त भाई को सितमगर कह दिया
लईक़ आजिज़