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दुश्मन-वुश्मन नेज़ा-वेज़ा ख़ंजर-वंजर क्या | शाही शायरी
dushman-wushman neza-weza KHanjar-wanjar kya

ग़ज़ल

दुश्मन-वुश्मन नेज़ा-वेज़ा ख़ंजर-वंजर क्या

क़मर सिद्दीक़ी

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दुश्मन-वुश्मन नेज़ा-वेज़ा ख़ंजर-वंजर क्या
इश्क़ के आगे मात है सब की लश्कर-वश्कर क्या

एक तिरे ही जल्वे से रौशन हैं ये आँखें
साअ'त-वाअ'त लम्हे-वम्हे मंज़र-वंज़र क्या

तेरे रूप के आगे फीके चांद-सितारे भी
बाली-वाली कंगन-वंगन ज़ेवर-वेवर क्या

तेरा नाम ही अंतिम सुर है धरती-ता-आकाश
साधू-वाधू पंडित-वंडित मंतर-वंतर क्या

यार 'क़मर' की बातों का क्या उस की एक ही रट
लिखता है बस नाम तिरा वो काफ़र-वाफ़र क्या