दुश्मन तो मेरे तन से लहू चूसता रहा
मैं दम-ब-ख़ुद खड़ा ही उसे देखता रहा
जो फूल झड़ गए थे जो आँसू बिखर गए
ख़ाक-ए-चमन से उन का पता पूछता रहा
मैं पार कर चुका था हज़ीमत की मंज़िलें
हर चंद दुश्मनों के बराबर खड़ा रहा
पलकों पे झूलती हुई शफ़्फ़ाफ़ चिलमनें
कल रात मेरा उन से अजब सिलसिला रहा
उस संग-ए-दिल के पास कहाँ थे वफ़ा के फूल
'अनवर-सदीद' जिस को सदा पूजता रहा
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ग़ज़ल
दुश्मन तो मेरे तन से लहू चूसता रहा
अनवर सदीद