EN اردو
दुश्मन के तंज़ को भी सलीक़े से टाल दे | शाही शायरी
dushman ke tanz ko bhi saliqe se Tal de

ग़ज़ल

दुश्मन के तंज़ को भी सलीक़े से टाल दे

मासूम शर्क़ी

;

दुश्मन के तंज़ को भी सलीक़े से टाल दे
अपने मज़ाक़-ए-तब्अ' की ऐसी मिसाल दे

बख़्शे बहार को जो न शाइस्तगी का रंग
ऐसी हर एक शय को चमन से निकाल दे

पिछली रुतों के दाग़ तो सब मांद पड़ गए
अब के बहार ज़ख़्म कोई ला-ज़वाल दे

मैं भी तो राह-रौ हूँ तिरा रहगुज़ार-ए-शौक़
थोड़ी सी धूल मेरी तरफ़ भी उछाल दे

'मासूम' साफ़-गोई बड़ी चीज़ है मगर
ऐसा न हो कहीं ये मुसीबत में डाल दे