दुश्मन के तंज़ को भी सलीक़े से टाल दे
अपने मज़ाक़-ए-तब्अ' की ऐसी मिसाल दे
बख़्शे बहार को जो न शाइस्तगी का रंग
ऐसी हर एक शय को चमन से निकाल दे
पिछली रुतों के दाग़ तो सब मांद पड़ गए
अब के बहार ज़ख़्म कोई ला-ज़वाल दे
मैं भी तो राह-रौ हूँ तिरा रहगुज़ार-ए-शौक़
थोड़ी सी धूल मेरी तरफ़ भी उछाल दे
'मासूम' साफ़-गोई बड़ी चीज़ है मगर
ऐसा न हो कहीं ये मुसीबत में डाल दे

ग़ज़ल
दुश्मन के तंज़ को भी सलीक़े से टाल दे
मासूम शर्क़ी