दुश्मन ब-नाम-ए-दोस्त बनाना मुझे भी है
उस जैसा रूप उस को दिखाना मुझे भी है
मेरे ख़िलाफ़ साज़िशें करता है रोज़ वो
आख़िर कोई क़दम तो उठाना मुझे भी है
उँगली उठा रहा है तू किरदार पर मिरे
तुझ को तिरे मक़ाम पे लाना मुझे भी है
नज़रें बदल रहा है अगर वो तो ग़म नहीं
काँटा अब अपनी रह से हटाना मुझे भी है
मैं बर्फ़-ज़ादी कब से अजब ज़िद पे हूँ अड़ी
सूरज को अपने पास बुलाना मुझे भी है
ग़ज़ल
दुश्मन ब-नाम-ए-दोस्त बनाना मुझे भी है
बिल्क़ीस ख़ान