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दुरुस्त है कि मिरा हाल अब ज़ुबूँ भी नहीं | शाही शायरी
durust hai ki mera haal ab zubun bhi nahin

ग़ज़ल

दुरुस्त है कि मिरा हाल अब ज़ुबूँ भी नहीं

सफ़दर मीर

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दुरुस्त है कि मिरा हाल अब ज़ुबूँ भी नहीं
मक़ाम-सज्दा कि ये जाम सर-निगूँ भी नहीं

नहीं कि शोरिश-ए-बज़्म-ए-तरब फ़ुज़ूँ भी नहीं
दलील-ए-शोरिश-ए-जाँ इक चराग़-ए-ख़ूँ भी नहीं

हदीस-ए-शौक़ अभी मुख़्तसर है चुप रहिए
अभी बहार का क्या ग़म अभी जुनूँ भी नहीं

अभी तो ताक़-ए-हरम में जलाइए शमएँ
अभी हरीफ़-ए-सनम जज़्ब-ए-अन्दरूँ भी नहीं

अभी ये गुम्बद-ए-सर फोड़ने की कीजे फ़िक्र
कि सद्द-ए-राह अभी चर्ख़ नीलगूँ भी नहीं

अभी तो गर्द-ए-रह-ए-आस्ताँ से साज़ करें
फ़रोग़-ए-दीदा कोई पैकर-ए-फ़ुसूँ भी नहीं

है इस क़दर कि निगह बाम-ओ-दर पे फिरती है
मगर दिलों को जो तड़पाए वो सुकूँ भी नहीं