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दुनिया वही है और वही सामान-ए-ज़िंदगी | शाही शायरी
duniya wahi hai aur wahi saman-e-zindagi

ग़ज़ल

दुनिया वही है और वही सामान-ए-ज़िंदगी

मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी

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दुनिया वही है और वही सामान-ए-ज़िंदगी
लेकिन बदलते रहते हैं उन्वान-ए-ज़िंदगी

क्या काम कर रहा है ये मेहमान-ए-ज़िंदगी
भरता है क्यूँ गुनाह से दामान-ए-ज़िंदगी

वहशत-नसीब है सर-ओ-सामान-ज़िंदगी
उल्फ़त में तार तार है दामान-ज़िंदगी

है देखने की चीज़ भी कुछ देखता है क्या
सैर-ए-जहाँ है ख़्वाब-ए-परेशान-ए-ज़िंदगी

काफ़ी है अपने वास्ते आराइश-ए-वजूद
आराइशों से पाक है दामान-ज़िंदगी

मौजों से खेलता हुआ बाहर निकल न जा
आख़िर ये किस लिए ग़म-ए-तूफ़ान-ए-ज़िंदगी

इक दिन हयात-ओ-मौत की इस खींच-तान में
हाथों से छूट जाएगा दामान-ए-ज़िंदगी

मरना ही जब जहाँ में है जीने का मा-हसल
नाहक़ उठाएँ किस लिए एहसान-ए-ज़िंदगी

समझे हुए थे हम जिसे ऐश-ओ-तरब का घर
ज़िंदान-ए-ग़म बना है वो ऐवान-ए-ज़िंदगी

पीरी चलेगी क्या मिरी पीरी के दौर में
आए कहाँ से पहली सी अब शान-ए-ज़िंदगी

है फ़स्ल-ए-गुल का ज़ोर बहारों पे है शबाब
क्या पुर-फ़ज़ा है आज गुलिस्तान-ए-ज़िंदगी

किस से वफ़ा की दहर में 'ख़ुशतर' उमीद है
अहद-ए-वफ़ा से दूर है पैमान-ए-ज़िंदगी