दुनिया तिरी रौनक़ से मैं अब ऊब रहा हूँ
तू चाँद मुझे कहती थी मैं डूब रहा हूँ
अब कोई शनासा भी दिखाई नहीं देता
बरसों मैं इसी शहर का महबूब रहा हूँ
मैं ख़्वाब नहीं आप की आँखों की तरह था
मैं आप का लहजा नहीं उस्लूब रहा हूँ
रुस्वाई मिरे नाम से मंसूब रही है
मैं ख़ुद कहाँ रुस्वाई से मंसूब रहा हूँ
सच्चाई तो ये है कि तिरे क़र्या-ए-दिल में
इक वो भी ज़माना था कि मैं ख़ूब रहा हूँ
उस शहर के पत्थर भी गवाही मिरी देंगे
सहरा भी बता देगा कि मज्ज़ूब रहा हूँ
दुनिया मुझे साहिल से खड़ी देख रही है
मैं एक जज़ीरे की तरह डूब रहा हूँ
शोहरत मुझे मिलती है तो चुप-चाप खड़ी रह
रुस्वाई मैं तुझ से भी तो मंसूब रहा हूँ
फेंक आए थे मुझ को भी मिरे भाई कुएँ में
मैं सब्र में भी हज़रत-ए-अय्यूब रहा हूँ
ग़ज़ल
दुनिया तिरी रौनक़ से मैं अब ऊब रहा हूँ
मुनव्वर राना