दुनिया से कौन जाता है अपनी ख़ुशी के साथ
वाबस्ता हो अगर न अज़ल ज़िंदगी के साथ
बस इतनी रस्म-ओ-राह है इस ज़िंदगी के साथ
इक अजनबी सफ़र में मिला अजनबी के साथ
यूँ दुश्मनी भी चलती है अब दोस्ती के साथ
जैसे अँधेरा रहता है हर रौशनी के साथ
मिल जाए मुझ को ख़ाक जो क़दमों की आप के
दिल क्या है मैं तो जान भी दे दूँ ख़ुशी के साथ
क्या तुझ को ख़ौफ़ हश्र में पुरशिश का 'इंतिज़ार'
तेरा तो हश्र होगा मुहिब्ब-ए-'अली' के साथ

ग़ज़ल
दुनिया से कौन जाता है अपनी ख़ुशी के साथ
इन्तिज़ार ग़ाज़ीपुरी