दुनिया सबब-ए-शोरिश-ए-ग़म पूछ रही है
इक मोहर-ए-ख़मोशी है कि होंटों पे लगी है
कुछ और ज़ियादा असर-ए-तिश्ना-लबी है
जब से तिरी आँखों से छलकती हुई पी है
इस जब्र का ऐ अहल-ए-जहाँ नाम कोई है
कुल्फ़त में भी आराम है ग़म में भी ख़ुशी है
अरबाब-ए-चमन अपनी बहारों से ये पूछें
दामान-ए-गुल-ओ-ग़ुंचा में क्यूँ आग लगी है
ऐ हम-सफ़रो ढूँढ लो आसानी-ए-मंज़िल
अपना तो ये दिल ख़ूगर-ए-मुश्किल-तलबी है
ऐ मौजा-ए-तूफ़ाँ तिरा दिल कोई भी तोड़े
साहिल ने सफ़ीने को इक आवाज़ तो दी है
ग़ज़ल
दुनिया सबब-ए-शोरिश-ए-ग़म पूछ रही है
एजाज़ सिद्दीक़ी